चमोली जनपद में 12 से लेकर 19 साल के अंतराल में होने वाली मशहूर नंदा देवी राज जात यात्रा इन यात्राओं में से अपना विशिष्ट स्थान रखती है। उत्तराखंड की विशेष यात्राओं में से एक यही है I
नंदा देवी राज जात यात्रा का महत्व और इतिहास
चार धामों की भूमि उत्तराखंड में धार्मिक यात्राओं तथा जातो की बहुत पुरानी परंपरा रही है। उत्तराखंड चार धाम की यात्राएं तथा यहां पर जात लगाई जाती है। जो कि यह परंपरा आज भी चली आ रही है।
यहां हर क्षेत्र में धार्मिक यात्राओं का आयोजन किया जाता है। चमोली जनपद में 12 से लेकर 19 साल के अंतराल में होने वाली मशहूर नंदा देवी राज जात यात्रा इन यात्राओं में से अपना विशिष्ट स्थान रखती है।
जो की बेहद ही प्रसिद्ध यात्राओं में से एक है। यह गांवों,गधेंरों, कस्बों,नदियों को बांधते हुए हिमालय के आर पार से निकल जाने वाली यह यात्रा रहस्य तथा रोमांचक से भरी हुई यात्राओं में से एक है।
राजजात यात्रा का इतिहास ठीक से ज्ञात किसी को भी नहीं है तथापि यहां लोकगीतों एक लोक परंपराओं के अनुसार यह यात्रा आठवीं सदी से शुरू हुई है। यह यात्रा के साथ देवी नंदा की मनौती मनाने का जो धार्मिक विश्वास जुड़ा है।
वहीं से विस्तार महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। उत्तराखंड के कोने-कोने में देवी नंदा के मंदिर स्थित है। यहां का संपूर्ण समाज देवी नंदा को आराध्या मानता है। देवी नंदा देवी बहुत ही ज्यादा विशाल देवियों में से एक मानी जाती है।
राजजात की तिथि तय करना ,राज छंतौली का शुभारंभ तथा पथ प्रदर्शक मेढे़ का चयन नौटी गांव में होता है। नौटी के नंदा मंदिर में स्थापित श्री यंत्र की पूजा अर्चना के बाद ही राजजात यात्रा प्रारंभ होती है।
दूसरी तरफ की शक्तिशाली शक्तिपीठ से नंद की दो डोलियां दशोली तथा बधाण से निकलती है। एक अन्य डोली दशमद्वार से निकलती है।इसके अतिरिक्त चमोली जनपद में गांव गांव से छंतोलिया लेकर लोकराज जात में शामिल होते हैं।
नंदा देवी राज जात यात्रा का इतिहास
स्थानीय प्रचलन एक जाकर गाथा के अनुसार बताया जाता है कि चंदनपुरगढ़ के राजा भानु प्रताप की दूसरी पुत्री का नाम नंदा था। जिसका विवाह शिव से तथा उनकी बड़ी बहन का विवाह धारा नगरी के कुंवर कनकपाल से हुआ था।
एक अन्य लोक कथा के अनुसार बताया जाता है कि कन्नौज के राजा यशोधवल की रानी वल्लभा ,चांदपुरगढ़ के राजा की पुत्री थी।जब चांदपुरगढ़ की ईस्ट देवी नंदा का उन्हें दोष लगा। तो राज्य में सुख तथा अन्य प्रकृति की आपदाएं आने लगी।
यहां पर त्राहि त्राहि मच गया। सब चीज खत्म होने लगा। बाद में ज्ञात हुआ की रानी के पितृ ग्रह की देवी का दोष है और इसका निवारण यहां की रात जात (धार्मिक यात्रा) में सम्मिलित होकर ही किया जा सकता है।अंत उन्होंने राज्य का आयोजन किया था।
दुर्भाग्य से धार्मिक परंपराओं का उल्लंघन के कारण यह यात्रा में रानी बल्लभा सहित राजा, सैनिक तथा सेवक सेविकाएं रूप कुंड की भीष्म तूफान से कालग्रसित हो गए थे। नंदा देवी राजजात की परंपरा काफी पुरानी बताई जाती है।
गढ़नरेशों ने इसका आरंभ किया था।लगभग सन 1886 ,1905 ,1925 ,1951 ,1968, 1987 तथा सन 2000 में संपन्न हुए राज्य जाट के प्रमाण उपलब्ध हैं। इस संस्कृति यात्रा का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष में किया जाता है।
यह यात्रा भगवती नंदा को उसके मायके से ससुराल तक पहुंचाने का कारूणिक विदाई पर आधारित यात्रा होती है। यात्रा की अनुगामी कर रहे चार सिंह वाले मेढ़े पर भगवती नंदा के लिए आभूषण ,श्रृंगार सामग्री, अन्न तथा फल आदि लाद दिए जाते हैं।
हजारों यात्री इसके पीछे-पीछे चलते हुए 21 दिन में 280 किलोमीटर की रोमांचक और कठिनाइयां भारी यह पैदल यात्रा तय करते हैं। चौसिंगा मेढे़ की सामग्री सहित नंदा पर्वत की ओर विदा कर छोड़ देते हैं। कहा जाता है की विदा करने के बाद किसी को भी पलट कर नहीं देखना होता है।
अगर कोई वापस मुड़कर देख लेता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है। पूर्व में राजजात यात्रा का आयोजन चंदनपुरगढ़ी के नरेश करते थे। किंतु राजधानी परिवर्तन होने के पश्चात उनके छोटे भाई काॅंसुवा के राजकुमार इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं।
काॅंसुवा चांदपुरगढ़ी के ठीक सामने एक संपन्न गांव हैं।चांदपुरीगढ़ी क्षेत्र में चार सींग वाला मेंढ़ा चयनित किया जाता है। साथ ही रिंगाल की छंतोली तैयार की जाती है। जो नंदादेवी को स्वर्णमूर्ति से युक्त होती है।
चौसिंगा मेढे़ छंतोली को नौटी के मंदिर में रखा जाता है। मंदिर के प्रांगण में रात भर जागरण तथा पारंपरिक मंगल गीत गाए जाते हैं। अगले दिन गज-बाजो के साथ नंदा देवी के विदाई के करूण गीतों के साथ ही राज जात आरंभ किया जाता है।
गांव की महिलाएं अपनी लाडली बेटी को नम आंखों से गांव की सीमा तक विदा करने के लिए जाती हैं। यात्रा का पहला पड़ाव ईड़ाबधानी होता है। यात्रा मार्ग में जो दो-तीन गांव आते हैं। उनके द्वारा राजजात में चल रहे यात्रियों का भरपूर स्वागत किया जाता है।
गांव के सार्वजनिक चौक से मंदिर तक के मार्ग पर नंदा देवी के स्वागत के लिए सफेद कपड़ों का स्थान बिछाया जाता है।मंदिर के प्रांगण में अपने निशानो के साथ रात भर हीत, लाटू तथा नंदा आदि अनेक देवी देवताओं का नर्तन करते हैं। अगले दिन सुबह से ही नंदा देवी की विदाई की तैयारी शुरू की जाती है। ईड़ाबधानी को भगवती नंदा का ननिहाल माना जाता है।
विदाई के समय परंपरा के अनुसार उन्हें वस्त्र, पकवान चबेना तथा फल आदि देकर नम आंखों से विदा किया जाता है। गांव के लोग देवी को दूर पहाड़ी की चोटी तक विदा करने आते हैं।
नंदा छोटों के लिए दीदी ,समवयस्कों के लिए सहेली तथा वयोवृद्धि जनों के लिए बेटी स्वरूप है। स्वर्णप्रतिमा युक्त छंतोली के साथ जैसे ही नंदा देवी राज जात यात्रा आरंभ होती है। भावविभोग महिलाओं के कंठ से शब्द फूट पड़ते हैं-
जा ब्बे तू कैलास त्वे तै दयूँलू मी मुंगरी, काखड़ी, जख म्वारी नि रींगदी, कन कै की रैली तू वै कैलास । जा ब्बे तू कैलास।
(बेटी तू कैलाश जा रही है। मैं तुझे कलेवा और फल दूंगी। जिस कैलाश में मधुमक्खी तक नहीं मंडराती हैं,तू उसे निर्जन एकांत कैलाश में कैसे रहेगी।) यात्रियों के साथ-साथ गांव के अनेकों लोग भी नंदा को विदा करने गांव की सीमा तक जाते हैं। ढोल ,दमाऊ और भंकोर के स्वर के साथ ही नंदा देवी राज जात यात्रा गांव की पहाड़ी के पार हो जाती है।
नंदा देवी राज जात यात्रा जिस गांव के निकट से होकर गुजरती है,वहीं नंदा को भेद देने के लिए लाखों लोगों की भीड़ उमड़ी पड़ती है। रात्रि पड़ाव के लिए राजजात चौसिंगा मेढ़े और छंतोलियों सहित काॅंसुवा गांव पहुंचती है। मुख्य पूजा इसी स्थान पर होती है।
कांसुवा में भराड़ी देवी तथा कैलापीर देवताओं के मंदिर भी हैं। नंदा देवी राजजात सीमित में 12 थोकी ब्राह्मणों,14 सयानों, पड़ावों तथा यात्रा में सम्मिलित होने वाले 200 से अधिक देवी देवताओं से संबंधित पक्षों को भी पर्याप्त सम्मान दिया जाता है।
काॅंसुवा के महादेवघाट तक नंदा देवी की पवित्र छतोली को राजपुरोहित नौटियाल लाते हैं। आगे की तरफ जाते वक्त हेमकुंड तक छंतोली ले जाने का दायित्वक ड्यूंटी के ब्राह्मणों का होता है।
काॅंसुवा से चलकर जब नंदा देवी राज जात यात्रा चांदपुरगढ़ी के किले तक पहुंचती है।तो नंदा देवी के गणों के पश्वा छंतोली हाथ में लेकर झूम-झूम कर किले की परिक्रमा लगाने लगते हैं।
चांदपुरगढ़ी के पश्चात नंदा देवी राज जात यात्रा, तोप ,उज्जलपुर आदि गांव से होकर गुजरती है। सेम गांव पहुंचती है।सेम में कोटी के लिए चढ़ाई का रास्ता है।मार्ग में धारकोट, घड़ियाल, सिमतोली गांव में नंदा देवी की पूजा अर्चना करके भेट दी जाती है।
दिलखाणीधार से नंदा देवी का मायका नौटी अंतिम बार दिखाई देता है। यहां पहुंचते ही छंतोलियां ससुराल जाने वाली बेटी की तरह बार-बार नौटी की ओर देखती है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा विदाई गीतों से वातावरण बहुत भावुक हो जाता है।
यहां पर नंदा देवी को चबेना,ककड़ी ,गहने और श्रृंगार की सामग्री की पोटली भेद में दी जाती है।दिलखाणीधार में देवी की कोटिशः प्रार्थना करने के बाद यात्रा आगे की तरफ विदा किया जाता है। कोटी से आगे धतौड़ा तक तीव्र चढ़ाई है। रास्ते में घना बांज और बुरांस का जंगल है।
भगोली गांव नंदा देवी राज जात यात्रा में नंद के मायके का आखिरी बना पड़ता है। यहां के लोगों में भगवती नंदा के लिए च्यूड़ा,चबेना, ककड़ी आदि देना होता है।
छतौलियों को दूर पहाड़ियों तक ले जाते हुए आंखों से ओझल होने तक निहारत रहती हैं। उसके दर्शन के लिए घंटे धूप वर्ष में खड़े रहकर प्रतीक्षा करना। यहां की संस्कृति का एक गहरी भावनाओं की विशेषता है।
यहां लोगों को बहुत ही ज्यादा भावुक देखने को मिलते हैं। जो की बहुत भावुक दृश्य होता है।भगोती गाँव की सीमा तथा नारायणबगड़ के समीप क्यूर गधेरा बहता है। यही भगवती नंदा के मायके की आखिरी सीमा है।
यहाँ पर भगवती कई घंटों के अनुनय-विनय के बाद मायके से ससुराल के लिए क्यूर गधेरे के पुल को पार करती है। मायके को छोड़ने के हृदय विदारक दृश्य को देखकर महिलाओं की आँखें अश्रुपूर्ण हो जाती हैं।
नंदा देवी राज जात यात्रा का अगला पड़ाव कुलसारी, नंदा के ससुराल क्षेत्र का पहला पड़ाव है। यह पिंडर नदी के किनारे पर स्थित एक छोटा-सा गाँव है। कुलसारी के मंदिर में देवी का श्रीयंत्र भूमिगत है।
इसको राजजात के अवसर पर बाहर निकालकर पूजा के बाद पुनः भूमिगत कर दिया जाता था, किंतु अब श्रीयंत्र को बाहर नहीं निकाला जाता है, अपितु भूमि के ऊपर से रोट काटकर पूजा की औपचारिकता पूरी करदी जाती है।
आगे की यात्रा के लिए छंतोलियाँ, पिंडर नदी के किनारे-किनारे थराली होते हुए चेपड्यूँ पहुँचती है। नंदा देवी राज जात यात्रा का अगला पड़ाव नंदकेसरी है। यहाँ पर नौटी और कुरूड़ की नंदादेवी का मिलन होता है। नंदकेसरी से तीन किलोमीटर पूर्णा सेरा तथा आगे देवाल कस्बा है।
यहाँ से देवी, फल्दिया गाँव के लाटू देवता के मंदिर में पहुँचती है। यात्रा का अगला पड़ाव मुदोली गाँव है। मुदोली पहुँचने तक यात्रियों की संख्या काफी बढ़ जाती है। मुदोली में भूमिपाल और जयपाल देवता के मंदिर हैं तथा नंदादेवी की प्राचीन कटार है।
मुदोली से ऊपर चढ़ाई पारकर नंदा देवी राज जात यात्रा लोहजंग पहुँचती है। नंदा देवी राज जात यात्रा का पैदल परिपथ 280 किलोमीटर लंबा है। करीब 22 पड़ावों की यह यात्रा गाँवों, गधेरों, नदियों को पार करने के बाद जब अंतिम गाँव, बाण पहुँचती है, तो फिर शुरू होती है, मानव रहित बुग्यालों एवं ग्लेशियरों की यात्रा।
बेदिनी बुग्याल, चौड़िया, कैलुआ विनायक तथा बगुवाबासा होकर यात्रा प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान, रूपकुंड पहुँचती है।रूपकुंड के ठीक ऊपर ज्यूरांगली के 5500 मीटर ऊँचे दर्रे को पार कर शिलासमुद्र तथा नीचे उतरते हुए भोजपत्र के जंगल, यात्रियों को हर कदम पर एक नए संसार से करते हैं।
नंदा देवी राज जात यात्रा के बाद गाँवों में चारों ओर हरियाली छा जाती है, खेत-खलिहानों में अनाज एवं गौशालाओं में गाय-बकरियों का भंडार भर जाता है, ऐसी लोगों की मान्यता है। आज के युवा इस धार्मिक यात्रा को साहसिक पर्यटन के रूप में भी देखने लगे हैं।
नंदा देवी राज जात यात्रा में सम्मिलित, देश के कोने-कोने से आए युवा एवं विदेशी पर्यटक, सभी यात्री उत्तराखण्ड की धार्मिक परम्पराओं से अभिभूत दिखाई पड़ते हैं।
नंदा देवी राज जात यात्रा मार्गों पर बसे गाँवों में नंदा के साथ बेटी, बहन, ननद एवं बहू जैसे मानवीय रिश्ते जोड़ना और रोते-बिलखते उसे 12 वर्षों के लिए विदा करने की परम्परा इस देवभूमि के अतिरिक्त और कहाँ मिल सकती है?
ज्यूरांगली, नंदा देवी राज जात यात्रा का सबसे विकट स्थान माना जाता है। पहले यहाँ पर केवल रस्सी पकड़कर आगे बढ़ा जा सकता था, किंतु अब यात्रा के लिए शासन द्वारा संकरा रास्ता बनवा दिया गया है।
आक्सीजन की कमी के कारण एक-एक कदम चलना कठिन हो जाता है। इस स्थान से दूसरी ओर उतरने के लिए इतना तीव्र ढाल है कि कोई भी व्यक्ति बिना लाठी के नीचे नहीं उतर सकता है।
इसके बाद आरंभ होता है शिलासमुद्र के चारों ओर फैला विशाल बुग्याल क्षेत्र, जहाँ घुटने तक ऊँची मखमली घास एवं रंग-बिरंगे फूलों की कालीन बिछी होती है। यहाँ सैकहाँ जड़ी-बूटियों की सुगंध फैलने लगती है। ऐसा लगता है कि मानो अलौकिक जगत की छटा बिखरी हो ।
शिलासमुद्र, ग्लेशियर द्वारा बहाकर लाए गए पत्थरों का ही समुद्र है। सामने कुछ ही दूरी पर ऊंचाई से निरंतर ग्लेशियर टूटते हुए दिखाई देते हैं। प्रत्येक क्षण इन ग्लेशियरों के टूटने की भयानक आवाजें सुनाई देती हैं। राजजात का अंतिम पड़ाव है पूजा स्थल- होमकुंड ।
शिलासमुद्र के आगे हिमनद पारकर नंदाकिनी नदी के किनारे-किनारे फूलों से भरी घाटी है। 21 दिनों की ऊबड़-खाबड़ और कठिन रास्तों की यात्रा तय करते हुये राजजात में हजारों यात्रियों का समूह आगे बढ़ता चला जाता है। कोई शक्ति है, जो सबको खींचती हुई इस कठिन एवं कष्टप्रद यात्रा में भी आस्था को अधिकाधिक घनीभूत करती है।
होमकुंड में परम्परागत ढंग से पूजा होती है। राजजात की अगुवाई कर रहे मेढ़े को भगवती नंदा के लिए श्रृंगार, वस्त्र और अन्न आदि सामग्री सहित वहाँ छोड़ दिया जाता है। पुरातन कथाओं के अनुसार मेढ़ा उस सामग्री को लेकर नंदापर्वत की अनंत यात्रा पर चला जाता है। निःसंदेह हिमालय की तरह ही विराट है।
नंदादेवी के प्रति पर्वतवासियों की आस्था। रहस्य, रोमांच, सुख-दुख, बहू बेटी के संवेदनशीलता ने और अनेक प्रकार के मानवीय धार्मिक सांस्कृतिक पहलुओं के लिए नंदा देवी राज जात यात्रा पर्वतीय सांस्कृतिक पर धार्मिक प्रभावों का परिलक्षित करता है। यह यात्रा जितनी खतरनाक है। उतनी ही सुंदर और भावुक से भारी यात्रा है।