Nanda Devi Temple Devbhomi Uttrakhand

Nanda Devi Temple के पीछे कहीं अलग अलग प्रकार की पौराणिक कथाएं तथा ऐतिहासिक कथाएं जुड़ी हैं।इस स्थान को नंदा देवी के नाम से जाना जाता है। इसका सारा श्रेय चंद्र शासकों को दिया जाता है क्योंकि मां नंदा की पूजा चंद शासकों के जमाने से मनाया जाता है।

Nanda Devi Temple का इतिहास

इतिहास के अनुसार राजा बाज बहादुर चंद्र बधाणकोट किले ने सोने की मूर्ति लाए और मूर्ति को मल्ला महल में स्थापित कर दिया। तब से चंद शासकों की कुलदेवी मां Nanda Devi को माना जाता है तथा यह लोग आज भी पूछते हैं।

नंदा देवी उत्तराखंड की पूजनीय देवियों में से एक हैं। उत्तराखंड के दोनों मंडल (कुमाऊं और गढ़वाल)की यह पूज्य देवी हैं। उत्तराखंड के लोगों का मानना देवी के साथ एक अलग ही रिश्ता है।

Nanda Devi Temple
Nanda Devi Temple

शायद ऐसा रिश्ता किसी और भक्तों का किसी देवी देवता के साथ हो। कोई उन्हें अपनी बेटी का दर्जा देता है, कोई मां का दर्जा देता है, कोई बहन का देता है। यह देवी रिश्तो के प्रेम से बनी हुई देवी है। जोकि देवी और भक्तों के रिश्ते को एक अलग ही रूप देता है। कत्यूरी वंश की सभी शाखाओं में जिया रानी को नंदा देवी का अवतार माना जाता है। उत्तराखंड के बारे में स्कंद पुराण के मानस खंड और केदारखंड में नंदा दारू ‘मूर्तिसमासीना’ सीना कहां गया है। उत्तराखंड में परंपरा अनुसार को यहां नंदा देवी की यात्रा को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

यहां कदली वृक्ष पर नंदा की मूर्ति बनाई जाती है।अल्मोड़ा में नंदा माता की स्थापित मूर्ति के बारे में बताया जाता है कि यह मूर्ति पहले गढ़वाल के जुनियागढ़ के किले में थी। 1617 के आसपास चंद्र राजा बाज बहादुर चंद्र ने यहां के किले को जीतने के बाद इस मूर्ति को अल्मोड़ा ले आए। वहां पर मल्ला महल के अंदर एक मंदिर बनवाया तथा इस मूर्ति को स्थापित कर दिया।यहां रोज पूजा होने लगी। यहां पर नंदा अष्टमी को वार्षिक महोत्सव मनाया जाता था।

Nanda Devi Temple
Nanda Devi Temple

लेकिन 1815 में अंग्रेजों और गोरखो के संघर्ष में मल्ला महल के भवनों के साथ मां नंदा देवी मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया।जिस कारण नंदा का वार्षिकोत्सव कम हो गया।बस मंदिर में पूजा औपचारिकता रह गई। लोगों ने अंग्रेजों से मां नंदा देवी के मंदिर बनाने के लिए काफी आग्रह किया।लेकिन उन्होंने उनकी परवाह किए बिना 1832 में इसे पूर्ण सिविल अधिकारियों का केंद्र बना दिया। कहा जाता है कि अंग्रेजों की इस व्यवहार से मां देवी नंदा क्रोधित हो गई।

उसी समय अंग्रेज कमिश्नर ट्रेन साहब पिडारी मिलन यात्रा पर थे। अचानक उनकी आंखों की रोशनी चली गई। पंडितो ने देवी का प्रकोप कहकर उन्हें मंदिर की स्थापना का सुझाव दिया। अंग्रेजो के द्वारा बनाया गया मंदिर नंदा देवी के वर्तमान परिसर में शिव मंदिर के साथ नंदा देवी का मंदिर बनवा कर मूर्ति को मल्ला महल से यहां लाकर प्रतिष्ठित किया गया। कहां जाता है इसके बाद अचानक आश्चर्यजनक रूप से आंखों की रोशनी लौट आई।

ऐसा भी कहा जाता है कि देवी की वर्तमान मूर्ति मूल मूर्ति नहीं है।जिसे राजा बाज बहादुर चंद जूनागढ़ से लाए थे। अष्ट धातु से निर्मित वह मूर्ति चोरी हो गई थी। उसके बाद चंद वंशीय आनंद सिंह ने मां नंदा की मूर्ति का निर्माण कराया था।आज के समय में इसी मूर्ति की पूजा की जाती है। जो कि अल्मोड़ा में स्थित है। इस मंदिर को अल्मोड़ा नंदा देवी के नाम से भी जाना जाता है।

मां नंदा देवी की कथा

उत्तराखंड में नंदा देवी की अलग-अलग प्रकार की कथाओं का वर्णन मिलता है। जो कि काफी प्रचलित है क्योंकि नंदा देवी गढ़वाल की परमार वंश , कुमाऊं के कत्यूर वंश और चंद्र वंश की कुलदेवी मानी जाती हैं। नंदा देवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है। लोगों के द्वारा नंदा देवी के बारे में अलग-अलग कहानियां प्रचलित है। नंदा को एक चंद्रवंशी राजा की पुत्री कहा गया है।कहा जाता है कि यह राजा हिमालय की पुत्री मां पार्वती के भक्त था। उनकी कोई संतान नहीं थी जिस कारण उन्होंने उदास होकर माता की काफी भक्ति करने लगे।

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माता ने उनकी भक्ति को देखकर बहुत खुश हुई। माता रानी ने रात को सपने में आकर राजा से बोला कि मैं तुम्हारे घर एक कन्या के रूप में जन्म लूंगी।इसके बाद उसने अपनी पत्नी को बताया। माता पार्वती ने अपने विचार अनुसार भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एक दिव्य कन्या का जन्म हुआ। विधि विधान से कन्या का नामकरण कराया गया। राजा ने उस दिव्य कन्या का नाम अपने राज्य की सबसे ऊंचे शिखर नंदाकोट के नाम पर नंदा रख दिया। उस दिन को नंदा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है।

Nanda Devi Temple
Nanda Devi Temple

उसके बाद से नंदा अष्टमी हर वर्ष मनाया जाने लगा। आगे चलकर इस महोत्सव को नंदादेवी का मेला के रूप में मनाते है। नंदा देवी की एक और कहानी काफी प्रचलित है कि एक जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी वंश की राजा कीर्तिवर्मन देव की पत्नी का नाम नंदा था। वह सीता और सावित्री के समान पवित्र थी। यह गढ़वाल में काफी प्रसिद्धि कथा है। चांदपुर के राजा भानु प्रताप की पुत्री तथा धारा नगरी के राजा जनक पाल की धर्मपत्नी बताया गया है।कहते हैं वह अपने दिव्य गुणों के कारण देवी के रूप में पूजे जाने लगी।

नंदा देवी के बारे में गढ़वाल की दूसरी लोक कथाओं में नंदा को हिमालय की पुत्री और चांदपुर राजा की पुत्री की सखी तथा धर्म बहन होने के कारण से गढ़वाल की पुत्री के रूप में पूजा जाने लगा। नंदा देवी का संबंध हिमालय से माना जाता है इसलिए उन्हें मां पार्वती का रूप ही माना जाता है। गढ़वाली और कुमाऊं उनका मायका और हिमालय, नंदा पर्वत कैलाश पर्वत, उनका ससुराल माना जाता है।एशिया की सबसे बड़ी और कठिन पैदल धार्मिक यात्रा नंदा राजजात यात्रा मानी जाती है। इस कहानी के अनुसार नंदा को ससुराल छोड़ने की परंपरा को राज जात के रूप में मनाया जाता है।

नंदा देवी मेला


नंदा देवी को अपनी कुलदेवी मानने वाले चंद्रवंशी नंदा अष्टमी को अपने परिजनों के साथ मिलकर एक विशेष प्रकार का उत्सव मनाते हैं। जो कि नंदा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। यह बहुत ही धूमधाम से मनाया जाने वाला उत्सव है।जिसको नंदा देवी मेले के नाम से संबोधित किया जाता है। महोत्सव अल्मोड़ा नैनीताल तीन दिवसीय मेले के प्रत्येक दिन संस्कृति कार्यक्रम से धूमधाम से मनाया जाता है तथा अंतिम दिन कदली स्तंभ में मां नंदा देवी की मूर्ति को बनाया जाता है।बड़े बड़े नगरों से आए हुए बड़े भक्त बड़े भाव से तथा हर्षोल्लास से यह यात्रा निकालते हैं।मां सूर्या देवी मंदिर चोरगलिया, माता  करती है चमत्कार

यहां पर पूजा प्रतिष्ठा की जाती है तथा नंदा को अष्ट बलि दी जाती थी। अब यह परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है।इस दिन चंद राजवंशी अपनी कुलदेवी की पूजा के लिए अल्मोड़ा आते हैं। अल्मोड़ा में नंदा देवी की पूजा को तांत्रिक विधि से किया जाता है क्योंकि राजा आनंद सिंह तांत्रिक पूजा में पारंगत थे। उनके जाने के बाद पूजा चिनानार नामक ग्रंथ के आधार से जाती है।

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